2002 में गोधरा रेलवे स्टेशन पर कुछ कट्टरवादी मुस्लिम अयोध्या से परत आ रहे कारसेवकों को जिंदा जलाने के लिए साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में आग लगा देते है. इस अमानवीय हिंसा में 59 कारसेवक की जलकर मृत्यु हो जाती है, जिस में महिलाएं और बच्चे भी थे. इस हिंसाचार के बाद गुजरात में कईं जगह हिंसा भडक उठी. उस हिंसा में हिन्दू और मुस्लिम दोनों पक्ष में जान-माल दोनों का नुकसान हुआ. सेंकडो हिन्दूओं पर गलत केस दाखिल कर दिए गए. ऐसा ही एक केस है बिलकिस बानो केस.
बिलकिस बानो नामक महिला ने उसके उपर बलात्कार हुआ है ऐसा आरोप लगाकर कुछ लोगों पर केस दाखिल कर दिया. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के समय एक मुस्लिन पुलिस अधिकारी - इदरिश सैयद उसी क्षेत्र में ड्यूटी निभा रहे थे. श्री सैयद पूरी तरह जानते थे कि बिलकिस के साथ कुछ भी गलत नहीं हुआ, और अगर हुआ भी है तो वह जिन लोगों को आरोपी बता रही है वह असल में आरोपी नहीं लेकिन मुश्किल में फंसे मुस्लिमों को मदद करनेवाले लोग थे.
इस केस की तपास के दरमियान पुलिस इंस्पेक्टर इदरिश सैयद ने सीबीआई को चीख चीख कर यह बताने का प्रयास किया कि बिलकिस जिन लोगों को आरोपी बता रही है वह लोग आरोपी है ही नहीं. लेकिन काँग्रेस के नेतृत्व में चल रही मनमोहनसिंह की युपीए सरकार गुजरात की भाजपा सरकार को किसी भी तरह कठहरे में खडा करना चाहती थी, इसलिए उनके इशारे से चलने वाली सीबीआई ने इंस्पेक्टर सैयद की एक न सूनी, और कैसे भी करके बिलकिस बानो के बयान के मुताबिक केस दाखिल कर दिया.
हारे हुए, निराश हुए इंस्पेक्टर इदरिश सैयद ने अपनी पुलिस कि नौकरी से निवृत्ति के बाद पूरे केस कि सिलसिला वार हकीकत प्रशांत दयाल नामक पत्रकार को लिखकर भेज दी.
प्रशांत दयाल ने श्री सैयद की पूरी बात जैसी थी वैसे ही अपने न्यूझ पोर्टल मेरा न्यूझ पर रख दी थी. उस पूरी बात गुजराती भाषा में है, जिसका मैंने हिन्दी अनुवाद किया है और यहाँ उसे प्रस्तुत किया है.
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प्रशांत दयाल (डाईंग
डेक्लेरेशनः भाग-1)
2004 में जब पुलिस
सब-इंस्पेक्टर के रूप में मैं जूनागढ सेवाएं दे रहा था तब मुझे पुलिस कंट्रोल रूम
से संदेश मिला की मुझे सीबीआई के समक्ष निवेदन देने के लिए लीमखेडा सरकारी गेस्ट
हाउस जाना है. एक पल मैं सोच में पड गया कि सीबीआई के समक्ष बयान मुझे जाना पड रहा
है, लेकिन अगले ही पल मेरी याददाश्त पर
जमी धूल को मिटाते हुए, मुझे तुरंत याद
आया कि सीबीआई शायद 2002 के रणधीकपुर
चकचारी बिलकिस बानू मामले में मेरा बयान रिकॉर्ड करना चाहती थी। अभी कुछ दिन पहले
मैंने अखबार में पढ़ा कि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को मामले की फिर से जांच करने का
आदेश दिया है। तुरंत मेरे मन में एक तरह की शांति फैल गई, मैं जानता था कि
बिलकिस बानू कांड की सच्चाई कागज पर दर्ज की गई सच्चाई से बहुत अलग थी और जेल में
डाले गए अधिकांश हिंदू निर्दोष थे और जो दोषी थे वे बाहर घूम रहे थे।
https://www.meranews.com/news/
देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी में सीबीआई का स्थान सबसे उपर है, मुझे उम्मीद है कि सीबीआई अब सच्चाई की जड़ तक जाएगी और सच निकलेगा और असली अपराधी पकड़े जाएंगे. बिलकिस बानू मामले से मेरा कोई लेना-देना नहीं था, मेरी तब पोस्टिंग दाहोद जिले के फतेपुर में थी, लेकिन लिमखेड़ा में स्थिति बिगड़ने पर मुझे मदद के लिए बुलाया गया था। वैसे मैं भी एक पुलिस अधिकारी था, मुझे पता था कि सीबीआई किस तरह के सवाल पूछेगी, मुझे भी खुशी हुई की जो पुलिस अधिकारी के रूप में नहीं कर सका था पर अब सीबीआई को उस सच्चाई तक ले जाने में मदद करूंगा। सीबीआई की भाषा कि मर्यादा, भौगोलिक सूचना और स्रोतों की सीमाओं को भी जानता था। मेरा दिमाग इस दिशा में दौड़ने लगा कि मैं कैसे सीबीआई की मदद कर सकता हूं। चूंकि जूनागढ़ से देवगढ़बरिया तक का सफर लंबा था, मैं तुरंत अपनी नई यात्रा के लिए निकल पड़ा।
यात्रा के दौरान
कई पुरानी यादें और घटनाएं मुझे याद आ रहीं थीं। मेरा पैतृक गाँव जूनागढ़ के पास
बिलखानी था, पिता एक सरकारी
कर्मचारी थे, जिसके कारण हमारे
स्कूल भी उनकी नौकरी के साथ बदलते रहते। हम तीन भाइयों में मैं दुसरे नंबर पे था। अम्मी और अब्बा
दोनों का मानना था कि हमें अच्छी तरह से पढ़ना चाहिए, लेकिन अब्बा हमें
पढाई करते और नौकरी करते हुए देख नहीं पाए। उस समय वह जूनागढ़ में सफाई निरीक्षक
के रूप में काम करते थे। उनकी उम्र 35 साल थी और अचानक उनका निधन हो गया। अब क्या होगा यह सवाल
अम्मी समेत हम तीन भाइयों के चेहरे पर था, लेकिन मेरे अब्बा के वरिष्ठ अधिकारी अच्छे थे। उन्होंने
मेरी अम्मी को स्वास्थ्य विभाग में चपरासी की नौकरी दिलवाई जिससे पटरी से उतर गई
हमारी जिंदगी फिर पटरी पर आ गई। अम्मी पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन वह शिक्षा
की कीमत समझती थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं नौकरी की तलाश में था। साल 1976 की बात है,
गुजरात पुलिस में कांस्टेबल की भर्ती आई थी। मेरी शैक्षणिक योग्यता के हिसाब से वह नौकरी बहुत सामान्य
थी लेकिन सोचने का समय नहीं था। अब अम्मी भी थक चुकी थी, वह भी बूढ़ी हो रही थी। अब उसकी मदद करें यह मेरा कर्तव्य
था। जूनागढ़ जिले के पुलिस कांस्टेबल भर्ती मेले में मैं गया और पास हुआ। जब मैंने
पहली बार अपने शरीर पर खाकी कपड़ा देखा तो मुझे लगा जैसे पूरी दुनिया मेरे सीने
में समा गई है।
हमारा जूनागढ़ साम्प्रदायिक संकीर्णता से प्रभावित नहीं था। मेरे स्कूल, कॉलेज, मोहल्ले और शहर ने मुझे कभी यह अहसास नहीं कराया कि मैं मुसलमान हूं और दूसरों से अलग हूं। मुझे सबसे ज्यादा खुशी है कि मैं पुलिस में शामिल हुआ तब मेरे दोस्तों को यह कहते हुए गर्व हो रहा था कि इदरीश पुलिस वाला बन गया। पुलिस कांस्टेबल के रूप में मेरी नौकरी जूनागढ़ और द्वारका में ही रही। लेकिन मेरी भी एक पुलिस अधिकारी बनने की इच्छा थी, इसके लिए मैंने कड़ी मेहनत की और 1998 में मैं पुलिस सब- इंस्पेक्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की और पीएसआई बन गया। जिसके चलते अब मेरा तबादला शुरू हो गया है। इस बीच, मैंने राज्य के कई शहरों में पीएसआई के रूप में काम किया, मैंने भी शादी की और तीन बेटियों और एक बेटे का पिता बना। हालांकि पुलिस की नौकरी में लगातार तबादलों के कारण मैंने अपना परिवार जूनागढ़ में ही रक्खा था। लंबे सफर के बाद मैं देवगढ़ बरिया पहुंच गया। मैंने थाने में पूछताछ की तो पता चला कि सरकारी गेस्ट हाउस में एसपी और डीवायएसपी समेत सीबीआई के डीआईजी का काफिला वहाँ है। उन्होंने बिलकिस बानू केस के तमाम कागजात मगवा लिए थे और कई लोगों को भी पूछताछ के लिए बुलाया था. मुझे बयान दर्ज करने के लिए बुलाया गया था।
मैं शांत था, मेरी कोई भूमिका
नहीं थी और मेरे पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं था। मैंने जो देखा, जो मैंने अपने
कर्तव्य के दौरान किया, उसके बारे में
मुझे सच बताना था, क्योंकि मेरे पास
छिपाने का कोई कारण नहीं था, मैं तैयार था। सरकारी गेस्ट हाउस पहुंचा, गेस्ट हाउस के
कैंपस में सरकारी कारों की कतार थी, पुलिसकर्मी भी थे और लोग बयान देने आए थे। मैं अंदर गया और वहाँ
उपस्थित एक व्यक्ति से कहा "मैं पीएसआई इदरीश सैयद हूं। मुझे बयान दर्ज करने
के लिए बुलाया गया है। सीबीआई में, सीपीआई से डीजीपी तक, कोई भी वर्दी नहीं पहनता है, इसलिए मुझे उस व्यक्ति की रैंक नहीं पता थी
जिससे मैंने बात की थी, लेकिन मेरा नाम
और रैंक सुनकर, उसने मुझे ऊपर से
नीचे तक देखा। उसका मुझे इस तहर देखना पसंद नहीं आया, लेकिन मैं उनसे
बहस नहीं करना चाहता था। मुझे तो बयान
दर्ज कराना था। उस व्यक्ति ने मुझे एक कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा कि वहाँ एसपी
ज़ा साहब है, आपकी ही राह
देखते हैं।
मैं एक सामान्य
पुलिस सब-इंस्पेक्टर और एक पुलिस अधीक्षक, वह भी सीबीआई एसपी मेरा इंतजार कर रहे थे, एक पल के लिए
मुझे कुछ अजीब एहसास हुआ। मैं उस कमरे की ओर बढ़ा, मैंने बाहर खड़े व्यक्ति से कहा कि मुझे झा
साहब से मिलना है, वह अंदर गया और
तुरंत बाहर आया। उसने मुझे अंदर जाने के लिए कहा, मैं अंदर गया और एसपी झा को सलाम किया और खड़ा रहा। वह भी बड़ी अजीब
तरह से मुझे देख रहे थे। यह वैसा ही नजारा था जैसा कि बाहर खड़े व्यक्ति ने मुझे
पहले देखा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि सीबीआई के ये लोग सबके सामने ऐसे क्यों देखते
हैं। मैं खड़ा रहा, बिना कुछ कहे
उसने हाथ से इशारा किया और बैठने के लिए कहा। पहले तो मुझे समझ नहीं आया और जब
मुझे समझ में आया, तो मुझे यकीन
नहीं था कि कोई पुलिस अधीक्षक मुझे कुर्सी पर बिठाएगा, क्योंकि गुजरात पुलिस में किसी
एसपी के सामने कुर्सी पर बैठना दुर्लभ था। उनके हावभाव के बाद भी मैं खड़ा ही था
तो उन्होंने मुझे बैठने को कहा। मैं कुर्सी पर बैठ गया, एकदम सीधा। एसपी झा ने टेबल पर पड़ी डायरी को देखा और पूछा
कि क्या नाम है आपका। मैंने कहा सर पीएसआई
इदरीश सैयद। उन्होंने सिर्फ
सिर हिलाया. फिर कुछ सोच कर मुझे पूछा, दंगे से समये आपका पोस्टिंग कहाँ था? मैंने कहा फतेपुर
पुलिस स्टेशन में, दूसरे पुलिस सब-इंस्पेक्टर के रूप में। उन्होंने मेरी तरफ शक की
नजर से देखा और तुरंत पूछा कि आपकी पोस्टिंग फतेपुर थीं तो आप रणधीकपुर कैसे
पहुंचे। मेरे चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई। लेकिन झा साहब को यह पसंद नहीं
आया। मैंने तुरंत फाइल
टेबल पर रख दिया और उसमें से एक पेपर निकाला और सर के सामने रख दिया और कहा सर
मेरा फतेहपुर में पोस्टिंग था, लेकिन 28 फरवरी 2002 दोपहर 12.30 को मुझे कंट्रोल
रूम से संदेश मिला मुझे लिमखेड़ा जाना है। मैंने अपना वायरलेस मैसेज स्लिप उनके सामने
रख दिया। वह स्लिप गुजराती में थी। हो सकता है कि भले ही वह गुजराती नहीं जानते होंगे, लेकिन उनका चेहरा
ऐसा लग रहा था जैसे वह सब कुछ जानते हो। वह कंट्रोल रूम से संदेश को ध्यान से देख
रहे थे। फिर वह कुर्सी एक दम सीधे बैठे और अपनी कोहनियों को टेबल पर टिकाकर कहा
चलो सैयद एक काम करते है, आपकी जुबानी सुनते है कि उस दिन क्या हुआ था।
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मुझे कुछ भी याद करने
की जरूरत नहीं थी क्योंकि मुझे उस दिन का एक-एक पल याद था। जिंदगी में उन
दिनों को कभी भऊल नहीं सकता। न केवल एक पुलिस अधिकारी के रूप में, बल्कि एक मनुष्य
के रूप में भी मेरे अंदर खलबली मच गई थी। दाहोद का फतेहपुर थाना वैसे छोटा था।
जनसंख्या के कारण पुलिस सब-इंस्पेक्टर रैंक की थी। मैं दूसरा पुलिस इंस्पेक्टर था, मेरे वरिष्ठ
पुलिस सब-इंस्पेक्टर परमार थे। पुलिस अधिकारी के रूप में हम दोनों पुलिस सब-इंस्पेक्टर
का हमारे क्षेत्र में बडा प्रभाव था। हमारे क्षेत्र में कोई भी अपराधी या असामाजिक
तत्वों द्वारा निडर होकर नहीं घूम सकेते थे।
https://www.meranews.com/news/view/web-story-series-dying-declaration-part-2
27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन
पर साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन को आग लगा दी गई। जिस दिन से मैंने
अपने पुलिस कर्मीयों को सतर्क कर दिया था। एक पुलिस अधिकारी के रूप में, मैं जानता था कि
ट्रेन में कार सेवकों के जलने से जनता के मन में गुस्सा है। मेरे थाना क्षेत्र में
भी मुसलमान रहते थे, मुझे सतर्क रहना था।
मैं अपने पुलिस स्टाफ के साथ सड़क पर आया। मुझे मालूम था कि पुलिस की मौजूदगी से
कई घटनाओं को रोका जा सकता था, स्टाफ कम था, लेकिन सड़क पर रहना जरूरी था। मैं और मेरे सीनियर
सब-इंस्पेक्टर एक साथ काम कर रहे थे। फतेपुर में किसी भी घटना को होने से रोकने के
लिए स्थानीय नेताओं
की एक बैठक बुलाई और पुलिस के साथ सहयोग करने और क्षेत्र में शांति बनाए रखने में
मदद करने का अनुरोध किया। अगले दिन 28 तारीख को गुजरात बंद का ऐलान दिया गया था। क्षेत्र छोड़ना
संभव नहीं था। रात में मैं पुलिस स्टेशन से ही गुजरते हुए मेरा ध्यान लगातार
वायरलेस संदेशो पर था। हमारे इलाके में कोई घटना नहीं हुई, लेकिन बंद की
घोषणा के दौरान आसपास के इलाके में हिंसा हो गई, जिसे मैं संदेशों में सुन रहा था। जहां
चार-पांच लोग उन्हें इकट्ठे होते थे, वहां मैं लगातार गश्त कर बिखेरता रहा। मुझे पता था कि एक
बार भीड़ जमा हो गई तो स्टाफ की कमी के कारण उन्हें नियंत्रित करना मेरे लिए संभव
नहीं होगा। हमारे क्षेत्र में दोपहर कोई घटना नहीं हुई, पूरी शांति थी। जब मैं अपनी
मोबाइल वैन में था, हमारे वायरलेस
सेट पर डीएसपी द्वारा एक संदेश आया जिसमें मुझे मदद के लिए लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन
जाने का आदेश दिया गया था। घड़ी में 12.30 बज रहे थे।
वायरलेस सेट पर
आने वाले संदेशों से मुझे लिमखेड़ा की गंभीरता का अंदाजा हुआ, जहां सड़क पर हिंदुओं
की भीड़ उमड़ पड़ी थी। लिमखेड़ा में मुस्लिम संपत्तियों को निशाना बनाया जा रहा था।
लूटपाट शुरू हो गई थी। आग लगाई जा रही थी, लोगों को मारा जा रहा था। ऐसे में
लिमखेड़ा गए बिना भी वहां के गंभीर हालात का अंदाजा हो रहा था। हमारे फतेहपुर में
शांति थी, इसलिए मुझे मदद
के लिए बुलाया गया। वायरलेस संदेश के बाद मैंने तुरंत अपने वरिष्ठ सब-इंस्पेक्टर
को सूचित किया जिन्होंने मुझे कहा कि सैयद मैं फतेपुर संभाल लूंगा और आप लिमखेड़ा
के लिए रवाना हो जाओ। जब मैं फतेपुर से निकला तब 13.30 बजे थे। मैं मदद
के लिए निकला था। मेरी भी हालत ठीक नहीं थी। मेरी मोबाइल वैन में ड्राइवर भरत सिंह
और वायरलेस ऑपरेटर कुष्नकांत थे। हम तीनों लिमखेड़ा के लिए निकल गए, लेकिन रास्ते में
पेड़ काट कर अवरोध खडे कर दिए गए थे। जिससे हमने रास्ते में वैन को रोका और अवरोध
दूर करके लिमखेड़ा की ओर चल पड़े। चार बज रहे होंगे, हम रणधीकपुर से पाँच किलोमीटर दूर थे।
फतेपुर-लिमखेड़ा के बीच की दूरी थी 60 किमी थी तभी कंट्रोल रूम ने हमारा लोकेशन पूछा, हमने कहा हम रणधीकपुर
से पांच किमी दूर हैं। हमें थोडी ही देर में खबर मिली कि राधनिकपुर में हिंसा भड़क
गई है। हमें राधनिकपुर में रुकना है, लिमखेड़ा के सर्कल पुलिस इंस्पेक्टर भी हमारी मदद के लिए आ
रहे हैं। रणधीकपुर लिमखेड़ा थाने की सीमा के भीतर आ रहा था। एक छोटे से गाँव में
भी मुसलमानों की बड़ी आबादी थी। वे आदिवासी आबादी से घिरे हुए थे। रणधीकपुर में
सामान्य दिनों में केवल एक हेड कांस्टेबल और दो कांस्टेबल द्वारा संचालित एक चौकी
थी। जैसे ही रणधीकपुर में तनाव शुरू हुआ, इन तीनों का स्टाफ कुछ नहीं कर सका, इसलिए मुझे वहीं
रह कर काम शुरू करना पड़ा। जब मैं रंधीकपुर पहुंचा तो वहाँ फंसे मुसलमानों को उनके
घरों से निकाल दुधिया गांव के रास्ते भेज रहा था। मेरे पास स्टाफ और हथियारबंद
आदमी भी नहीं थे। लेकिन वैन दौडाकर भीड़ को पीछे भगा रहे थे। लिमखेड़ा के पुलिस
अधिकारी के पास जीप थी, जब कि मेरे पास वैन थी। इसलिए मैं वैन में जितने बिठा पाउँ उतने मुसलमानों
लेकर लिमखेड़ा थाने ले जाता था। हिंदुओं की भीड़ मुसलमानों को किसी भी कीमत पर
मारना चाहती थी लेकिन पुलिस के रूप में हमें उन्हें बचाना था। हमें जानकारी मिली
कि रणधीकपुर में कुछ अच्छे हिंदू हैं जिन्होंने इस घटना के बाद मुसलमानों को उनके
घरों में शरण दी है, लेकिन भीड़ को पता चला कि जसवंत और गोविंद नावी के घर में
मुसलमान हैं तब लोगों ने नावी के घर को घेर लिया। मैं तुरंत उनकी मदद के लिए पहूंचा
और नावी के घर से 12 मुसलमानों को
निकाल कर लिमखेड़ा थाने ले गया। इस तरह मैंने कई मुसलमानों को उस इलाके से
सुरक्षित बाहर निकाल लिया,
जिसके बाद मुझे
लिमखेड़ा में रहने का निर्देश दिया गया। 4 फरवरी की सुबह थी, एक लड़की लिमखेड़ा थाने में दाखिल हुई। उसकी पोशाक से मैंने
तुरंत अनुमान लगाया कि वह मुस्लिम थी। वह सीधी थाना प्रभारी सोमाभाई कोरी के पास
गई। कई मुसलमानों को
थाने में ही पनाह दी गई थी। लड़की ने अपना परिचय देते हुए कहा कि उसका नाम बिलकिस
बानू याकूब रसूल है, उसकी शादी देवगढ़
बरिया में हुई है, लेकिन ईद के कारण
वह अपनी बेटी सालेहा के साथ अपने पिता के घर रणधीकपुर आई थी, वहां स्थिति और
खराब हो गई। गोधरा कांड के
बाद, गाँव के आदिवासी
लोग इकट्ठे हो गए थे। वह लोग चिल्लाने लगे इसलिए वे डर गई, परिवार में
माता-पिता-भाई-बहन और चचेरे भाई सहित 17 लोग शामिल थे। उन्होंने गाँव छोड़ने का फैसला किया और घर
से निकल कर पहले तो गाँव के सरपंच कदकिया भाई के वहाँ रुके। लेकिन वहां भी
सुरक्षित महसूस नहीं होने पर पांच किलोमीटर दूर बिजलभाई डामोर की आश्रमशाला में
रुके और तय किया कि हम रात के अंधेरे में निकलेंगे और वन मार्ग से देवगढ़ बरिया
पहुंचेंगे।
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बिजल डामोर का आश्रम रणधीकपुर
से पांच किलोमीटर दूर था। इस तरह हम रणधीकपुर के बहुत करीब थे और लगातार डर बना
रहता था। इसलिए हम जितना हो सके रणधीकपुर से दूर चले जाना चाहते थे। क्योंकि हम
जानते थे कि हमारे घर से निकलने के बाद भीड़ हमें ढूंढ़ रही होगी। बिलकिश बानू ने
कहा कि हम दिन के उजाले में बाहर नहीं जा सकते थे और पूरी रात डर में बिताना
मुश्किल था। तो सबने मिलकर फैसला किया कि रात के अँधेरे में हम आश्रम से निकल कर
वन मार्ग पर देवगढ़ बरिया चले जाएंगे। वैसे तो हम पहूँच जाते लेकिन हमारे साथे मौसी
की लडकी थी उसे नौ महीने हो गए थे। उसे अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। वह इस हालत में हमारे साथ
जंगल के रास्ते पर चल रही थी और हम सब मिलकर 17 लोग थे। इस हालात में तेज चलने के कारण मेरी मौसी की बेटी को दर्द
शुरु हो गया। ऐसी स्थिति में हम कुवाजेर गांव पहुंचे। हम सब वहीं रुक गए मौसी की
बेटी ने एक बच्ची को जन्म दिया, हमें डर था कि कोई भीड़ आ जाएगी लेकिन हमारे पास प्रसूति के
लिए रुकने के अलावा कोई चारा नहीं था।
अपनी नवजात बेटी
को लेकर हम जंगल से होते हुए देवगढ़ बरिया की ओर बढ़ने लगे, उसी समय हमने लोगों
की चीख-पुकार सुनी। हमें पता ही नहीं था लेकिन किसी तरह यह खबर आदिवासी भीड़ तक
पहुंच गई थी। हम छपरवाड़ गांव
की पहाड़ियों पर थे, हमें हर तरफ से घेर
लिया गया था। हम पर रात के अंधेरे में हमला किया गया। चारों तरफ से पथराव किया गया
और लाठियों से लोग हम पर तूट पड़े। भीड़ ने हमारे आदमियों को बेरहमी से मार डाला। जो महिलाएं
थीं उनका रेप किया जा रहा था। भीड़ ने मुझ पर भी हमला किया। मैंने उनके सामने हाथ जोडे, उन्हें बताया कि मैं
गर्भवती हूं और मुझे छोड़ देने के लिए बिनती की, जिसके कारण भीड़ ने मुझे छोड़ दिया। इस घटना
में मेरे हाथ-पैर में भी चोटें आई हैं। बिलकिस बानू जो कह रही थीं, उस पूरी घटना से
लिमखेड़ा पुलिस अनजान थी। थानाध्यक्ष सोमाभाई ने बिलकिश बानू की कही हुई बात को
दर्ज किया और उसकी शिकायत को संज्ञान में लिया। पुलिस की पहली प्राथमिकता बिलकिस
का इलाज कराना था। इसलिए उसे तुरंत लिमखेड़ा सरकारी अस्पताल में डॉ. अरुण प्रकाश
के पास भेजा गया।
अस्पताल से लौटने
के बाद बिलकिश बानू को कहां रखा जाए, यह पुलिस के लिए एक सवाल था और अन्य मुसलमानों को भी
लिमखेड़ा थाने में शरण दी गई थी। उनके रहने, खाने - पीने की व्यवस्था करना अब मुश्किल हो रहा था। शहर
में कर्फ्यू लगा हुआ था। इसलिए तय हुआ कि बिलकिश समेत सभी मुसलमानों को सुरक्षित
स्थान पर ले जाया जाए, इसलिए हमने
उन्हें सरकारी वाहनों से गोधरा इकबाल हाई स्कूल के राहत शिविर में छोड़ दिया।
बिलकिश की शिकायत के बाद उसकी जांच होनी थी। थाना प्रभारी सोमाभाई ने इस घटना की
जांच लिमखेड़ा पुलिस सब-इंस्पेक्टर बी.आर. पटेल को सौंपी। घटना गंभीर थी। इस मामले
में जांच किसी पुलिस सब-इंस्पेक्टर या उनसे से ऊपर के किसी अधिकारी से होनी चाहिए
थी, लेकिन पीएसआई
पटेल ने खुद जांच करने की बजाय रणधीकपुर थाना के हेड कांस्टेबल नरपत पटेल को जांच
सौंप दी।
रणधीकपुर आउट
पोस्ट था, वहां कुल तीन लोगों
का स्टाफ था। वह इसकी जांच कैसे कर सकता थे और वहां के हालात भी अच्छे नहीं थे।
हेड कांस्टेबल नरपत पटेल ने मुझसे कहा कि मुझे जांच करनी है लेकिन वहां स्थिति
अच्छी नहीं है, अगर आप मेरी मदद
करें तो अच्छा है... नरपत पटेल ने जो कहा वह मैं समझ रहा था। इस जांच से मेरा कोई
लेना-देना नहीं था क्योंकि मैं फतेपुर थाने में था। घटना लिमखेड़ा थाने की थी। फिर
भी मैंने हेड कांस्टेबल नरपत की मदद करने का फैसला किया। मुझे लगा कि मामला गंभीर
है इसलिए अच्छा है कि कोई वरिष्ठ अधिकारी मेरे साथ हो... तो मैंने सर्कल
इंस्पेक्टर आरएम भाभोर को साथ आने को कहा और उन्होंने भी स्थिति को समझा। हम पांच
मार्च को सुबह घटना स्थल पहूँचे। यह जो घटना हुई थी वह जगह सड़क से 200 मीटर ऊपर एक
पहाड़ी पर थी। न वाहन जा सकते थे, न ही साइकिल पहूँचा जा सकता था। तो हम सब वहां पैदल
ही पहुंच गए। जैसे ही हम पहाड़ी की चोटी पर पहुँचे, हम काँप गए, हमने पुलिस के काम में कई लाशें देखीं थी, लेकिन यह क्रूरता
की हद थी।
वहां कुल सात
लाशें पड़ी थीं, सड़ रही थीं और
बदबू आ रही थी। इनमें चार महिलाएं और तीन बच्चे थे। पुरुष चोंटे लगने पर भी भागने
में कामयाब हुए थे और बच गए, लेकिन महिलाओं को भी मारे जाने से पहले बलात्कार किया गया
था। क्योंकि एक पुलिस
अधिकारी के रूप में गुस्से में था कि अगर आरोपी सामने होता तो गोली मार देता।
हमारे पास स्टाफ कम था, हमने पंचनामा
शुरू किया। इसके लिए हम बिलकिश के रिश्तेदार अब्दुल सत्तार और एक महिला को साथ लाए
थे। लेकिन अब्दुल बहुत डरा हुआ था। जब हमने उससे मृतक की पहचान पूछी तो वह बिलकिश
की मां हलीमाबीबी को ही पहचान सका। सामने दूसरी पहाड़ी पर आदिवासियों का एक समूह
चिल्ला रहा था और हमें डरा रहा था, वे हमें चले जाने के लिए भी कह रहे थे। हम इस स्थिति में
काम कर रहे थे। हमने मजिस्ट्रेट को भी सूचना दी। पंचनामा के बाद हमें शवों को
पोस्टमॉर्टम के लिए ले जाना था, लेकिन शवों को 200 मीटर ऊंचाई से नीचे ला कर ले जाना मुश्किल था।
अतः हमने एक
डॉक्टर को मौके पर बुलाकर पोस्टमार्टम करने का फैसला किया, इसलिए हमने
लिमखेड़ा स्वास्थ्य केंद्र को सूचित किया लेकिन डॉक्टर वहां से नहीं आया। हमने
दुधिया गाँव के डॉ. अरुण प्रसाद और उनकी डॉक्टर पत्नी संगीता प्रसाद जो बांदीमार
की डॉक्टर थीं उन्हें बुलाया। अरुण प्रसाद और संगीता प्रसाद वहां पहुंचे और
उन्होंने नियमानुसार सात शवों का मौके पर ही पोस्टमार्टम भी किया। अब सवाल यह था
कि शव किसके हवाले किया जाए, हलीमाबीबी के अलावा किसी की पहचान नहीं हुई, हमने अब्दुल
सत्तार से हलीमाबीबी की लाश लेने को कहा लेकिन वह डरा हुआ था और उल्टीयाँ कर रहा
था। उसने शव लेने से इंकार कर दिया। जो मृतकों के परिजन थे वह जान बचाने के लिए
अलग-अलग जगहों पर भाग गए। सवाल यह था कि किसे कहां खोजा जाए। जिले में कहीं भी
कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था नहीं थी, जहां शवों को रखा जा सकता था। शाम हो गई थी, अंधेरा हुआ तो
परेशानी और बढ़ जाएगी। क्योंकि जंगल की पहाड़ियों पर रोशनी नहीं थी और हमारे पास
पुलिस बल भी नहीं था।
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अब हमारी बड़ी
समस्या यह थी कि सात में से छह लोगों की पहचान नहीं हो पाई थी। बिलकेश की मां
हलीमा बीबी की पहचान हो गई थी लेकिन उसके परिजन शव लेने को तैयार नहीं थे। बाकी छह कौन थे
और उनके परिजन का पता लगाना इस हालात में मुश्किल था। शहर में कर्फ्यू था, फिर भी कुछ
आदिवासियों को पता चला कि हम छापरवाड़ की पहाड़ियों पर आए हैं, तो वे सामने वाली
पहाड़ी पर बैठे हमें देख रहे थे और चिल्ला रहे थे। हमारा स्टाफ बहुत कम था। हम
उन्हें खदेड़ने की स्थिति में भी नहीं थे। चूंकि हम शवों को नीचे उतार कर
पोस्टमार्टम के लिए नहीं ले जा सके, इसलिए हमने पहाड़ी पर डॉक्टर को बुलाया और पोस्टमार्टम
करवाया। डॉ अरुण प्रकाश और डॉ संगीता ने हमें प्रारंभिक रिपोर्ट दी जिसमें पुष्टि
की गई कि महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। दाहोद के डिप्टी कलेक्टर
पारेख भी मौके पर पहुंचे।
https://www.meranews.com/news/view/web-story-series-dying-declaration-part-4-real-stories-wri
सूरज ढलने वाला
था, मैं खुद मुसलमान
था और मरने वाला भी मुसलमान थे। मैने सोचा कि इनकी मौत तो खराब हो गई है लेकिन
उनका ठीक से अंतिम संस्कार किया जाना चाहिए। मैंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात की, तपास का जिम्मा हेड कांस्टेबल
नरपत पटेल के पास था, लेकिन वह बेचारे
फैसला करने की स्थिति में नहीं थे। मैंने कहा कि हम उन सभी को यहीं पहाड़ी पर दफना दें। सबके लिए अलग
कब्र खोदने का समय नहीं था लेकिन अंधेरा होने से पहले दफन होना जरूरी था। मैंने
फौरन अपनी वैन दौड़ाई और चार-पांच मजदूरों को बुलाया। मैंने कहा साढ़े पांच फुट
गुणा साढ़े पांच फुट का गड्ढा खोदो। मजदूर काम में लग गए। मुस्लिम होने के नाते मैं सभी रीति-रिवाजों को जानता था।
तदनुसार, मैंने सभी
संस्कार किए और सात व्यक्तियों को वहीं दफनाया, इस संबंध में एक रसीद भी बनाई और एक आधिकारिक रिकॉर्ड बनाने
के बाद कि शव को दफनाया गया, हेड कांस्टेबल नरपत को कागजात दिए।
मुझे ऐसा लग रहा था
कि सीबीआई के एसपी झा मेरी बात ध्यान से सुन रहे हैं। क्योंकि जब मैं बोल रहा था
तो उन्होंने मुझे कहीं नहीं रोका, बीच में कोई सवाल नहीं पूछा, मैं बोलता रहा। मैंने मारी
समाप्त कि तब उन्होंने कहा, आगे क्या हुआ? मैंने कहा बस
मैं यही हुआ था। झा साहब अपनी
कुर्सी ठीक से बैठ गए, टेबल पर पेपरवेट
घुमाने लगे, वह मेरी तरफ ही
देख रहे थे। उन्होंने पेपरवेट
को अपनी हथेली में जोर से दबाकर पकडी लिया और कहा, तुम्हारी कहानी हम ली, मुझे लगा की आप
मुस्लिम हैं तो सच बोलेंगे,
यह वाक्य सुनकर
मैं दंग रह गया, मुझे नहीं पता चला
कि मैंने कौन सा वाक्य गलत कहा है।
मैंने कहा सर मैं
लिमखेड़ा पुलिस की मदद करने गया था। मैंने अलग-अलग गांवों से करीब 400 मुसलमानों को बचाकर
उन्हें राहत शिविर में छोड़ दिया। लेकिन उनके चेहरे से मुझे एहसास हुआ कि उन्हें मेंरी बातों
पर भरोसा नहीं हो रहा था। झा साहब ने मुझे कहा कि सुनो, सही क्या है वो
मैं आपको सुनाता हूं। यह कहते हुए
उन्होंने डायरी खोली और कुछ पन्ने आगे-पीछे कर दिए, कुछ पढ़कर उन्होंने मुझे कहानी सुनाई जो कुछ इस
तरह थी। उन्होंने बात
करना शुरू किया और कहा कि 27 फरवरी को गोधरा
स्टेशन पर एक ट्रेन में आग लगाए जाने के बाद हिंदुओं में गुस्सा था, वह बदला लेना चाहते
थे। ऐसी स्थिति में नरेंद्र मोदी की सरकार मुश्किल में आ गई थी। हिंदू बीजेपी से
नाराज थे, इसलिए नरेंद्र
मोदी चाहते थे कि हिंदुओं को बदला लेने दिया जाए। अगर पुलिस निष्क्रिय रहें तो ही
हिंदू जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं। इस बारे में नरेंद्र मोदी ने अपने नेताओं को
जानकारी दी। दाहोद के भाजपा मंत्री जसवंतसिंह भाभोर ने नरेंद्र मोदी की इस भावना
से दाहोद के एसपी ए.के. जडेजा को अवगत कराया। एसपी जडेजा ने इसकी सूचना डीवायएसपी
भाभोर को दी और भाभोर ने उनको निष्क्रिय रहने का आदेश दिया।
असल में एसा कुछ
नहीं हुआ था जैसा झा साहब कह रहे थे। मदद के लिए मुझे फतेपुर से लिमखेड़ा बुलाया गया। जब मैं
मुसलमानों को बचा रहा था तो भाभोर साहब ने मुझे कभी नहीं रोका। मैं स्तब्ध रहकर झा
साहब को देख रहा था। झा साहब ने कहा कि बिलकिस बानू कांड वाले दिन आपने इस मामले
के आरोपी को सफेद जीप से राधिकपुर जाते हुए देखा था, लेकिन आपने कोई कार्रवाई नहीं की क्योंकि मुझे
निष्क्रिय रहने का आदेश दिया गया था। मैं कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं था। जब
मुझे पता चला कि सीबीआई जैसे संगठन के एसपी मुझसे कुछ ऐसा क्यों कह रहे हैं जो कभी
हुआ ही नहीं, तो उन्होंने मेरी
तरफ देखना शुरू कर दिया और मुझसे पूछा कि बोलो क्या कहोगे? मैंने खुद को
बहुत सतर्क कर लिया और कहा सर आपके कहने से कुछ नहीं हुआ। मैं एक पुलिस अधिकारी
हूं, मेरा कोई वरिष्ठ
मुझे निष्क्रिय रहने का आदेश कैसे दे सकता है? मुझे ही नहीं, हमारे किसी पुलिस अधिकारी को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया गया
है। उसने मुझसे कहा, ठीक है, बगल के कमरे में
बैठो, मेरा दूसरा
अधिकारी तुमसे बात करेगा। मैं उठकर बगल के कमरे में बैठ गया।
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5
सीबीआई के एसपी
झा साहब एक नई कहानी लेकर आए थे जिस पर किसी को यकीन नहीं हो रहा था। राज्य का एक
मुख्यमंत्री गुजरात पुलिस के पचास हजार पुलिस कर्मियों को अपनी गलत भावना कैसे बता
सकता है और पुलिस उसके अनुसार कार्रवाई कैसे करेगी। लेकिन अब मैं
अकेला था। मुझे नहीं पता था कि क्या कहूं, मैं उन दिनों की घटना को फिर से जी रहा था। मैं उस जांच का
हिस्सा नहीं था, लेकिन जो हो रहा
था वह मेरे संज्ञान में था।
बिलकिस बानू को हमने
गोधरा राहत शिविर में रखा था। अब राहत शिविर में पत्रकारों और कुछ स्वयंसेवी
संगठनों समेत मुस्लिम नेताओं की आवाजाही बढ़ गई। उनकी मुलाकात बिलकिश से भी हुई
थी। हमने उसकी शिकायत दर्ज कर ली है। उसने जो कहा, हमने उसे रिकॉर्ड किया लेकिन हमें आश्चर्य हुआ
कि कुछ लोग बिलकिश के साथ गोधरा पुलिस स्टेशन आए और कहा कि वे यह शिकायत दर्ज करना
चाहते हैं। गोधरा थाने के पीएसआई ने शिवाजी पवार को लिखा रहे थे कि जब वह जान
बचाकर भागे तो भीड़ ने उन्हें घेर लिया। भीड़ में शामिल शैलेश भट्ट ने उनकी साढ़े तीन साल की बेटी
सालेहा को एक पत्थर पर पटक कर मार दिया। और मेरे साथ जशवंत नावी-गोविंद नावी और
नरेश मोदिया ने रेप किया, पच्चीस अन्य पुरुष भी थे। इस तरह बिलकिश ने गोधरा पुलिस
को एक नई बात बताई।
बिलकिश जब
लिमखेड़ा थाने आई तो उसने रेप की घटना नहीं बताई थी। बाद में जब उसे इलाज के लिए
लिमखेड़ा के सरकारी अस्पताल ले जाया गया तो उसने डॉक्टर के सामने भी रेप के बारे
में नहीं बताया था, वहां उसने सिर्फ
अपनी चोटों के बारे में बताया था। लेकिन बिलकिश की घटना अब मोड़ ले रही थी। लिमखेड़ा पुलिस को
जांच में ट्विस्ट एंड टर्न्स पर काम करना पड़ा, लेकिन उस दिशा में भी लिमखेड़ा पुलिस ने कुछ नहीं किया और
एक भी आरोपी पकड़ा नहीं गया। लिमखेड़ा पुलिस ने संक्षिप्त रिपोर्ट कोर्ट में दाखिल
कर कोर्ट को बताया कि आरोपी का पता नहीं चल सका है। मेरे मन में एक सवाल उठ रहा
था। मुझे एक घटना के बारे में क्यों पूछ रहे हैं जिससे मेरा कोई संबंध नहीं है।
जिस कमरे में मैं बैठा था वहाँ सीबीआई के दो अधिकारी आए। वे बहुत प्यार से
बात करने लगे। उन्होंने मुझसे
कहा, हमने झा साहब से
बात की है, हम जानते हैं कि
आप निर्दोष हैं, लेकिन आप नाहक के
मामले में फंस रहे हैं। सर चाहते हैं कि आप स्टार गवाह बनें। आपको बीजेपी से डरने
की जरूरत नहीं है। हम आपको एक प्रमोशन के साथ मुंबई में भारत सरकार की एक एजेंसी
में ले जगह देंगे।
मैं भी एक पुलिस
अधिकारी था, मैं उन दो अधिकारियों को देखता रह गया। मैं
उनकी बात की गंभीरता को समझ सकता था।
मुझे नरेंद्र
मोदी से लेकर जसवंत भाभोर,
ए.के. जडेजा और
डीवायएसपी भाभोर के नाम झा सर की इच्छा के अनुसार लिखना था। मैंने उन्हें पूछा, मैं यह कैसे कर
सकता हूं, जो हुआ ही नहीं
है उसकी गवाही कैसे दूं। दोनों अधिकारियों ने एक-दूसरे को देखने के बाद फिर से एक
अधिकारी ने मुझे शांति से समझाया कि कुछ भी नहीं करना है, हम आपको अदालत
में पेश करेंगे, आपको आगे बढ़ना
होगा और बयान देना होगा जो हमने सीआरपीसी 164 के अनुसार मजिस्ट्रेट के सामने हमने जो कहा वह बोल के चले
जाने का। और हम अपना वचन पूरा करेंगे। मैं उनकी ओर देखता रहा, वे समझ गए, कि मैं उनसे सहमत
नहीं। तो एक और अधिकारी मेरे पास आया और मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा, देखो, मुझे आपको नहीं
बताना चाहिए, लेकिन हम जो कह
रहे हैं उसके अनुसार अगर आप बयान देते हैं, तो हम आपको इसमें शामिल एनजीओ से भी पांच करोड़ दिलवा
देंगे। इस मामले में पहले उन्होंने मुझे नौकरी की लालच दी, अब पैसे की बात
आई।
मैं जानता था कि
मेरी झूठी गवाही कितने जीवन बर्बाद कर सकती है। उस समय सीबीआई के संयुक्त निदेशक
ने गेस्ट हाउस में प्रवेश किया, उन्हें देखकर उनके अधिकारी उठ खड़े हुए और मैं भी। संयुक्त
निदेशक ने मुझे सिर से पांव तक देखा, मैं पुलिस की वर्दी में था, उसने तेज आवाज में मेरा नाम पूछा, मैंने कहा पीएसआई
ए आई सैयद, जैसे ही उसने
मेरा नाम सुना, वह मुझ पर गुस्सा
हो गया और उसने अपने अधिकारी को देखा और कहा, इसके गणवेश पर स्टार शोभा नहीं देते, उनके स्टार तोड़कर
फेंक दो। मैं बहुत हैरान था लेकिन मैंने हिम्मत करके कहा कि सर आपने मेरी बात नहीं
सुनी। मैंने अपने कंधे पर जो स्टार है वह बदनाम हो ऐसा कुछ नहीं किया है। मैं जो
कह रहा था उसे सूनने से पहले ही ज्वाइंट डायरेक्टर चला गया। सबके सामने इस तरह की
बेइज्जती से मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, बदन भी गरम हो गया।
संयुक्त निदेशक
के जाने के बाद दोनों अधिकारियों ने मुझे एक कुर्सी पर बिठाया और फिर से बात करने
लगे। उन्होंने मुझसे
कहा, देखो, प्रकृति हर बार
ऐसा अवसर नहीं देती है। आपको पैसा भी मिलेगा और भारत सरकार में आपको अच्छी नौकरी
भी मिलेगी। बिना किसी डर के अवसर का लाभ उठाएं। मैं एक पुलिस अधिकारी था, मैं कानून जानता
था, लेकिन अंदर मुझे
एक अनजाना डर महसूस हुआ। मैंने मन बना लिया था कि मैं किसी भी कीमत पर गलत काम
नहीं करूंगा। फिर भी समय ठहर गया हो एसा लगता था। मैं अकेला पड गया। वे मुझे
अलग-अलग तरीकों से गवाह बनने के लिए राजी कर रहे थे। दोनों अधिकारी एक
के बाद एक बात कर रहे थे। वह सौम्यता से
बात कर रहे थे, फिर भी मुझे अच्छी नहीं लगती थी।
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6
मुक़दमे में गवाह
बनने के लिए मुझे मुझे बहुत ही समझाया गया, मैं मेरी ओर से दलीलें करता रहा। अब तक जो सौम्यता
से बोल रहे थे उनकी आवाज़ ऊंची हो गई। अब उन्होंने मुझे फुसलाना बंद कर दिया
और मुझे धमकाना शुरू कर दिया। मुझे कहा कि देखो तुम्हारे पास दो ही विकल्प हैं, या
तो तुम इस मामले में गवाह बनो या आरोपी बनो। मैं चौंक गया।
यह मेरे ऊपर था
कि मैं इस मामले में गवाह बनूं या नहीं, लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि मैं इस मामले में आरोपी कैसे बन
सकता हूं। अब मैंने भी आवाज उठाई और जवाब देने लगा तो सीबीआई अफसर भी जोर-जोर से
बोलने लगा। उसने मुझसे कहा कि तुम सीबीआई मामले के बारे में नहीं जानते, हमारे मामले में
आरोपी को सजा मिलती है। अब वह धमकी की भाषा में बात करने लगे। मैंने उससे कहा मुझे डराने के लिए बात मत करो। तो अधिकारी नाराज
हो गया और गाली-गलौज करने लगा। मैंने कहा सर, मुझे मत डाँटो।
जैसे आप एक पुलिस अधिकारी हैं, मैं भी एक पुलिस अधिकारी हूं। यह वाक्य सुनकर अधिकारी का
गुस्सा फूट पड़ा, वह मुझ पर चढ़
गया और मेरी खमीस के कॉलर पकड़ ली। अब मेरे स्वाभिमान की बात आई। मैं पुलिस की
वर्दी में था और मेरा कॉलर पकड़ते ही मुझे गुस्सा आ गया और मैं भी उठ खड़ा हुआ और
अधिकारी का कॉलर दोनों हाथों से पकड़ लिया और कहा अब हद तोड़ी है तो आप भी देखिए..
.हमारे बीच हाथापाई शुरू हो गई। हम दोनों एक-दूसरे को जमीन पर गिराने की कोशिश कर रहे थे। वहां मौजूद दूसरे
अधिकारी चौंक गए और वह हमें अलग करने की कोशिश करने लगे। लेकिन हम एक-दूसरे को
जाने देने के लिए तैयार नहीं थे। एक और अफ़सर चिल्लाया, दूसरे अफ़सरों को
बगल के कमरे से बुलाया, दूसरे अफ़सरों ने
आकर हमें अलग किया। मेरा कॉलर पकड़े हुए अफसर ने मुझसे कहा, अब तुम देखो, सीबीआई की ताकत
क्या है मैं आपको दिखाऊंगा।
मुझे छोडकर सभी अफसर चले गए, अब कोई मुझसे बात
नहीं करता था, कोई मुझसे कुछ
पूछता नहीं था। इस तरह मुझे दो दिन तक बैठा रखा गया। मेरा परिवार मेरे बारे में
चिंतित था, तीन दिन हो गए तब मेरे भाई ने
अदालत में आवेदन किया और कहा कि मुझे सीबीआई ने हिरासत में लिया है। इस अर्जी के
तुरंत बाद सीबीआई के अधिकारियों ने मुझसे कहा कि आप जा सकते हैं, हमें आपसे कोई
लेना-देना नहीं है। जैसे ही मैं गेस्ट हाउस से बाहर आया, मुझे ऐसा लग रहा
था कि मैं यहां सालों से हूं। बाहर आने पर भी मन बेचैन था। क्योंकि जो हुआ उससे वह
दुखी था। मैं वापस जूनागढ़ चला गया। अगले दिन मुझे एक चौंकाने वाली खबर मिली कि
सीबीआई ने हेड कांस्टेबल नरपत पटेल को गिरफ्तार कर लिया है। वह वास्तव में वह पूरी
तरह निर्दोष थे। एक दिन जांच कर के वापस सौंप दी थी। हालांकि सीबीआई ने उन्हें आरोपी
बना दिया, लेकिन अब मुझे डर
लगने लगा था। मुझे सीबीआई अधिकारी की धमकी याद आई जिसने मुझसे कहा था कि सीबीआई
क्या कर सकती है। मेरा डर सच हो गया, 3 मार्च को मुझे संट्रोल रूम से संदेश मिला कि मुझे देवगढ़ बरिया गेस्ट हाउस
में उपस्थित होना है क्योंकि सीबीआई एक बयान दर्ज करना चाहती थी।
जब मैं 5 मार्च को सीबीआई
के सामने पेश हुआ, तो मुझे बताया
गया कि हम आपको सबूत नष्ट करने और आरोपियों की मदद करने के आरोप में गिरफ्तार कर
रहे हैं। मुझे गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया और सीबीआई ने 14 दिन के रिमांड
की मांग की। मैंने कोई वकील की मदद नहीं ली। लेकिन मैंने खुद
अदालत में मेरा पक्ष रखा। मैंने अदालत से कहा, मैं एक पुलिस अधिकारी हूं, मैंने जो किया वह मेरे कर्तव्य के हिस्से के
रूप में था। चूंकि मैंने कोई अपराध नहीं किया है और सीबीआई के पास मुझे गिरफ्तार
करने के लिए कोई सबूत नहीं है। अदालत ने मेरी याचिका खारिज कर दी और पांच दिन के रिमांड पर
सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया। मैं अब सीबीआई की हिरासत में था, मेरे साथ अन्य
आरोपियों की तरह व्यवहार किया गया। मुझे प्रताड़ित करने का एक भी मौका नहीं चूकना
चाहते थे। वे मुझसे विभिन्न
अधिकारियों के खिलाफ बयान देने के लिए कह रहे थे, लेकिन मैंने पहले दिन जो कहा था, उस पर अड़ा रहा। मैंने उनसे कहा
कि मैंने अपने अनुसार काम करने में आपराधिक प्रक्रिया संहिता गलती की होगी। लेकिन
इसके पीछे मेरा इरादा सबूतों को नष्ट करने और आरोपी की रक्षा करने का बिल्कुल भी
नहीं था। लेकिन वह मानने को तैयार नहीं थे।
उन्होंने एक
व्यापारी का बयान दर्ज किया कि लाशों को दफनाते वक्त 90 किलो नमक मंगवाया
गया था। इस प्रकार मेरे विरुद्ध
जो सबूत पेश किए जा रहे थे वे सब मेरे खिलाफ थे। कई गवाहों ने दर्ज कराया था कि
पुलिस ने हमें बचा लिया था लेकिन सीबीआई ने इसमें मेरा नाम लिखने के बजाय यह नोट
किया था कि किसी पुलिस अधिकारी ने हमें बचाया था, हां वह कौन है, हम नहीं जानते। इस प्रकार सीबीआई अपनी जांच
के पक्ष में सबूत जुटा रही थी। वे सच्चाई के दूसरे पक्ष की जांच करने के लिए तैयार
नहीं थे। इस केस में
गोधरा के पीएसआई
शिवाजी पवार द्वारा दायर शिकायत में तीन आरोपियों के नाम थे, जिसके बाद जांच
गुजरात सीआईडी अपराध शाखा को सोंप दी गई। उन्होंने कई बार बिलकिश बानू से मिलने की
कोशिश भी की लेकिन वह सीआईडी सामने नहीं आई। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सीबीआई ने
तहकीकात शुरु की और बिलकिश ने 12 आरोपियों के नाम बताए जिन्होंने उसके साथ रेप किया था।
उन्हें सीबीआई ने गिरफ्तार किया था। पांच दिन की रिमांड पूरी होने पर सीबीआई ने
मुझे साबरमती जेल भेज दिया।
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7
मुझे गिरफ्तार कर
रिमांड पूरा होने पर साबरमती जेल भेज दिया गया। मन में डर था। क्योंकि जेलों में
पुलिस अधिकारियों के लिए कोई अलग व्यवस्था नहीं होती है। चूंकि जेल में लंबे समय
से कर्मचारियों की कमी होने के कारण अधिकांश जेल व्यवस्था पुराने कैदियों द्वारा
नियंत्रित की जाती है। अतीत पुलिस द्वारा पकडे गए आरोपी जेल में होते है और पुलिस
अधिकारी भी उसी जेल में होते हैं तो एक कैदी द्वारा पुलिस पर हमले की संभावना रहती है। लेकिन सौभाग्य से मुझे साबरमती जेल
में कोई परेशानी नहीं हुई। जिसके बाद मुझे वडोदरा सेंट्रल जेल में ले जाया गया। वहाँ
भी मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक इस मामले की
सुनवाई मुंबई में होनी थी। जिसके कारण मुझे वडोदरा जेल से मुंबई के आर्थर रोड जेल
में शिफ्ट कर दिया गया। आर्थर रोड जेल की
अधीक्षक स्मिता साठे थीं। इस जेल में अंडरवर्ल्ड के कई कुख्यात अपराधी थे, लेकिन स्मिता
साठे से बड़े-बड़े अपराधी भी डरते थे। पुलिस अधिकारियों में सिर्फ मुझे और हेड
कांस्टेबल नरपत को ही गिरफ्तार किया गया था। जबकि 12 आरोपियों के नाम बिलकिस बानू की शिकायत के
मुताबिक बताए गए हैं। वे सभी हमारे साथ जेल में होने चाहिए थे। अब तक मुझे नहीं
पता था कि वास्तव में बिलकिश बानू की शिकायत में क्या था और सबूत कौनसे लिए गए थे।
जब अहमदाबाद की
पुरानी उच्च न्यायालय में आरोप पत्र दाखिल किया गया तो उसमें
डीवाईएसपी आर.एस. भगोरा, इंस्पेक्टर भाभोर, पीएसआई पटेल, पीएसओ सोमभाई को
आरोपी बनाए गये, साथ ही डॉ अरुण
और डॉ संगीता के नाम भी थे। कोर्ट ने उन्हें तलब कर कोर्ट में हाजिर होने का आदेश
दिया। वे सभी कोर्ट में
मौजूद रहे और कोर्ट ने उन सभी को जेल भेजने का आदेश दिया। लेकिन इस बार
नजारा दिल दहला देने वाला था। डॉ. अरुण और संगीता अपने बेटों वरुण (उम्र-3) और सगुन (उम्र-2) को कोर्ट में
लेकर आए थे। जब अदालत ने डॉक्टर दंपत्ति को भी जेल भेजने का आदेश दिया और पुलिस ने
उन्हें हिरासत में ले लिया तब दोनों बच्चें को उनके माता-पिता से अलग कर दिया गया
था। जब डॉक्टर दंपत्ति को पुलिस वैन में ले जाया जा रहा था तो उनके बेटे
वरुण और सगुन उसमें रोने लगे। सगुन बहुत छोटा था लेकिन उससे एक साल बड़ा वरुण
थोड़ा समझ रहा था कि वह अपने माता-पिता से अलग हो रहा है। वरुण रोते हुए पुलिस से
पूछ रहे थे की कहां ले जा रहे हो मेरे मम्मी-पप्पा को। ये दृश्य काफी दिल के कठोर
इंसान की भी आंखें नम करने वाला था।
लेकिन मुझे भी
बिना इमोशनल हुए काम करना पड़ा क्योंकि मेरी जिंदगी भी सवालों के घेरे में थी।
मैंने चार्जशीट के पेपर्स पढ़ना शुरू किया। मुझे एक के बाद एक चौंकाने वाले सबूत देखने
को मिले। मुझे लगा कि
निर्दोष होते हुए भी मुझे परेशान किया जा रहा है। बिलकिश की शिकायत
के अनुसार सामूहिक बलात्कार मामले जिन लोगों को आरोपी
बनाए गए थे उनमें से बहुत सारे वास्तव में निर्दोष थे। मैं भी मुसलमान था और
बिलकिश भी मुसलमान, हालाँकि मैं समझ
गया था कि बिलकिश बहुत झूठ बोल रही थीं। लेकिन मेरी राय का कोई मूल्य नहीं था। मुझे वह अदालत में
साबित करना था।
जब मैंने पहली
बार आरोपियों के नाम पढ़े तो मैं चौंक गया क्योंकि इन 12 आरोपियों ने
पहले मुस्लिम महिलाओं का बलात्कार किया और फिर उनकी हत्या कर दी, लेकिन इन 12 आरोपियों में
शैलेश भट्ट और मितेश भट्ट चचेरे भाई हैं। इसी तरह नरेश मोदिया और प्रदीप मोदिया भी
भाई हैं। साथ ही केसर मोदिया और बका मोदिया चचेरे भाई हैं जबकि जसवंत नावी और
गोविंद नावी चाचा-भतीजे हैं। इस प्रकार, मैंने कभी भी अपने पुलिस की नौकरी में चचेरे भाइयों और
चाचाओं और भतीजों द्वारा सामूहिक बलात्कार करे ऐसा देखा और सुना नहीं था। फिर से मैं अपनी
राय नहीं कहता लेकिन मेरे पास सबूत भी थे कि यह आरोपी निर्दोष थे। जबकि आरोपी
बिपिन जोशी पूरी तरह से विकलांग है। उसके दोनों पैर काम नहीं करते हैं और चलने के
लिए बैसाखी की जरूरत होती है। वह कैसे पहाड़ी पर चढ़कर रेप कर सकता था... जिसे इस
मामले में गवाह के तौर पर रखा गया था उन्हें मैं उस दिन बचाया था और सुरक्षित स्थान
पर रख छोड आया था लेकिन उन्हीं गवाहों के बयान मेरे खिलाफ थे। बिलकिश बानू के बयान
को पढ़कर एक नई कहानी सामने आई।
बिलकिश का बयान
ऐसे दर्ज किया गया था कि, जिस दिन वह अपने परिवार के 17 सदस्यों के साथ छापरवाड़
के जंगलों में भाग रही थी तब दो सफेद जीपों में 25-30 आदमी आए, जिनमें से एक शैलेश भट्ट था। मैं गिडगिडाई और कहा कि तुम
मेरे भाई और चाचा की तरह हो, मुझ पर दया करो, मैं गर्भवती हूं। लेकिन शैलेश भट्ट ने मेरी बेटी सालेहा को पीट-पीटकर मार
डाला और फिर तीन लोगों ने मेरा बलात्कार किया। इसी तरह मेरी मौसी की बेटी के साथ
भी हुआ। उसकी नवजात बच्ची को मार डाला। मैंने मरने का नाटक किया तो भीड़ ने मुझे
छोड़ कर चली गई। तब मेरे शरीर पर कपड़े नहीं थे जब मैं पहाड़ी से नीचे आई तो एक
आदिवासी महिला ने मुझे कपड़े दिए जो मैं पहनी थी और एक हैंडपंप पर पानी पीने गई थी
जब मैंने देखा कि एक पुलिस जीप जा रही थी। मैंने उन्हें रोका और वे मुझे लिमखेड़ा
थाने ले आए। वहां मैंने पीएसओ
सोमभाई को मेरे साथ रेप करने वाले 12 लोगों के नाम बताए लेकिन उसने मुझे धमकी दी कि मैं रेप के
बारे में बात ना करूं और किसी के नाम ना लूँ, नहीं तो वे इलाज के बहाने मुझे जहर का इंजेक्शन लगाकर मार
देंगे। इसलिए मैंने वहां किसी के नाम नहीं लिये।
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8
सीबीआई ने मुंबई
की एक अदालत में कुल 15 गवाहों को पेश
किया और मजिस्ट्रेट के सामने एक बयान दायर किया, जिनमें से एक फारूक पिंजारा थे। पिंजारा ने
गवाह के रूप में दिये बयान के अनुसार, वह 28 फरवरी को
रणधीकपुर में अपनी मौसी के घर पर था, जब हालत बिगड़ गई तो सब भाग गए, लेकिन तबीयत ठीक
न होने के कारण वह भाग नहीं पाया। दोपहर एक बजे उसने पुलिस जीप का सायरन सुना तो
उसे लगा कि उसे मदद मिलेगी,
इसलिए वह घर के
बाहर आया और देखा तो आरोपी राजू सोनी की दुकान के पास पुलिस की जीप खड़ी थी। लाल
बत्ती लगी हुई थी, वहां के लोग
पुलिस से मुसलमानों को मारने की बात कर रहे थे। लेकिन पुलिस को
देखकर मैं हिम्मत करके वहां जाकर पुलिस से कहा, मैं मुसलमान हूं मेरी मदद करो। तो पीएसआई ने कहा अगर तुम बचना
चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ। मैंने पीएसआई की नेम प्लेट पढी तो उस पर आई.एस. सैयद लिखा
था। और उसके बगल में रणधीकपुर चौकी के जमादार नरपतसिंह खड़े थे। जब पुलिस अधिकारी
ने मुझे बचाने से मना किया तो मैं भाग कर गांव के बाहर माताजी के मंदिर गया जहां
मैंने अपने सिर पर कंकू और तिलक लिया ताकि कोई मुझे मुसलमान न समझे और वहां से भाग
निकला। फारूक पिंजारा झूठ बोल रहा था, मेरे पास इसके सबूत थे। मुझे पुलिस कंट्रोल
रूम से घटना वाले दिन 12.30 बजे लिमखेड़ा
जाने का आदेश मिला जो नोट किया गया था। मैसेज मिलने के एक घंटे बाद मैं 13:30 बजे अपने
ड्राइवर और ऑपरेटर के साथ फतेपुर से लिमखेड़ा के लिए निकला। लिमखेड़ा-फतेपुर की
दूरी 60 किमी है। जब हम
चार बजे रणधीकपुर पहुंचे तो मुझे कंट्रोल रूम ने वहीं रुकने का आदेश दिया। तो जब
मैं चार बजे रणधीकपुर पहुंचा तो मैं एक बजे फारूक पिंजारा से कैसे मिल सकता था।
इसके अलावा फारूक खुद रणधीकपुर का नहीं है, तो वह चौकी के जमादार नरपत को नाम और चेहरे से कैसे पहचान
सकता है। फारूक के दावे के मुताबिक, उसने एक पुलिस जीप देखी, उसने एक सायरन सुना और लाल बत्ती चालू थी, लेकिन जब मैं
फतेहपुर से निकला तो जीप में नहीं मिनीबस टाइप का मोबाइल वैन थी। उस पर कोई लाल बत्ती नहीं है और कोई साइरन
नहीं थी। इस तरह फारूक एक के बाद एक झूठे सबूत दे रहा था।
सीबीआई की ओर से
तैयार किए गए बयानों को सीबीआई की मर्जी के मुताबिक सबूत के तौर पर रखा जा रहा था।
यह केवल फारूक की बात नहीं है बल्की जिन्हें मैंने बचाया था वे भी मेरे खिलाफ
गवाही दे रहे थे। इतना ही नहीं
मुसलमानों को बचाने में मदद करने वालों को भी नहीं बख्शा गया। 28 तारीख को स्थिति
बिगड़ने पर रणधीकपुर के गोविंद नावी और चतुर नावी ने अब्दुल सत्तार समेत 12 मुसलमानों को
अपने घर में छिपा लिया और उनकी जान बचाई और इन सभी मुसलमानों को खिलाने की
व्यवस्था भी की। बाहर की स्थिति इतनी खराब थी कि नावी चाचा-भतीजा के पास उन
मुस्लिमों को घर से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर भेजने की कोई गुंजाइश नहीं थी। नावी
परिवार ने इन 12 मुसलमानों को 4 मार्च तक रखा।
ऐसे में जब गांव वालों को पता चला कि उसने इतने दिनों तक मुसलमानों को पनाह दी है
तो गांव की भीड़ नावी के घर के सामने आ गई। वे मुसलमानों को उनके हवाले करने की
मांग कर रहे थे।
चूंकि भीड़ नावी
परिवार द्वारा आश्रय लिए गए मुसलमानों को मारना चाहती थी, गोविंद नावी को
लगा कि स्थिति हाथ से निकल रही है। फिर उसने पुलिस की मदद मांगी तो मैं वहां
मोबाइल वैन लेकर पहुंचा। भीड़ भारी थी और
वैन में हम केवल तीन पुलिसकर्मी थे, इसलिए मैंने पुलिस वैन को भीड़ के पीछे भगाया और भीड़ को
हटा दिया। जिसके बाद अब्दुल
सत्तार सहित सभी को पुलिस वैन में बिठाकर दुधिया जाने वाली सड़क पर सुरक्षित स्थान
पर ले जाया गया। उन सभी ने पुलिस वैन से उतर कर मेरे पैर पकड़ कर उनकी जान बचाने
के लिए धन्यवाद दिया। वह अब्दुल सत्तार अब सीबीआई का गवाह बन गया था। उसने न केवल
पुलिस के खिलाफ बल्कि गोविंद और चतुर के खिलाफ भी बयान दिया, जिसने उसे शरण दी
थी। जेल में बंद होने
कारण कई अन्य समस्याएं
बढ़ रही थीं। मेरी बड़ी बेटी
की शादी हो गई थी
लेकिन दो अन्य
बेटियां और बेटे पढ़ रहे थे। जब मैं जेल गया तो मेरा बेटा दसवीं कक्षा में पढ़ रहा
था। घर की हालत खराब होने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी और काम करने लगा। जबकि डॉ अरुण और
डॉ संगीता अभी भी प्रोबेशन पर थे तो उनका वेतन ही रोक दिया गया था। डॉ संगीता ने मानसिक संतुलन
खो दिया था। टीवी पर किसी को हथकड़ी लगाते देख वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठती।
इसी तरह सभी पुलिस अधिकारियों के घरों में भी यही स्थिति थी, लेकिन अब हमें
पूछने और मदद करने वाला कोई नहीं था।
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9
हम जेल में थे। मैं जेल में बैठा
केस पेपर पढ़ रहा था। समझा जाता है कि सीबीआई अधिकारियों ने अपनी सुविधा के लिए
मामले को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और कुछ अधिकारियों को निशाना बनाया। अब मुझे
सीबीआई अधिकारियों पर शक हो रहा था। बिलकिश के दावे के मुताबिक जब वह लिमखेड़ा थाने पहुंची और सामूहिक
दुष्कर्म और हत्या की शिकायत दर्ज कराई तो वहां के पीएसओ सोमा गोरी ने उसे धमकी दी कि
वह बलात्कार के बारे में बात न करे और किसी आरोपी का नाम न बताए वरना उसे जहर का
इंजेक्शन लगवा दिया जाएगा। वास्तव में बिलकिश ने जो बलात्कार और हत्या के सभी विवरण दर्ज किए थे वे सोमाभाई
द्वारा दर्ज किए गए थे, लेकिन बिलकिश ने
यह नहीं बताया था कि उसके साथ रेप हुआ है। इसके अलावा जब उन्हें मेडिकल टेस्ट के
लिए ले जाया गया तो भी उन्होंने डॉक्टर की रिपोर्ट में भी इस तरह की कोई बात नहीं थी।
मेडिकल रिपोर्ट के मुताबिक भी उसके शरीर पर जबरदस्ती के निशान नहीं थे और मान लिया
कि उसने डॉक्टर को बताया तो सीबीआई ने डॉक्टर को आरोपी क्यों नहीं बनाया। मेरे
खिलाफ पेश किए गए गवाह फारूक पिंजारा ने दावा किया कि वह अपनी मौसी के घर पर था और
बीमारी के कारण भाग नहीं सका था इसलिए वह उसके घर में छिपा था और दोपहर एक बजे वह पुलिस जीप
का सायरन सुनकर बाहर आया। उसने देखा पुलिस की लाल बत्ती वाली एक कार वहीं खड़ी थी
जिसमें पीएसआई सैयद थे। जैसे ही उन्होंने मुझे भागने के लिए कहा, मैं देवगढ़ बरिया
भाग गया।
अब पिंजारा झूठ
बोल रहा था। पहला प्रमाण यह था कि इस पूरे क्षेत्र में लोगों के घर मिट्टी और गोबर
के थे। जिसमें वे लकडी और पत्तों का उपयोग करते हैं। पिंजारा की चाची
की शिकायत के अनुसार, लोगों ने उनके घर
पर सुबह 11 बजे हमला किया
और आग लगा दी। पिंजारा उस घर
में कैसे छिप सकता है जो सुबह 11 बजे जल गया था। उसके बाद पिंजारा के दावे के अनुसार उसने पुलिस जीप को देखा, उसने सायरन सुना और
मदद मांगने आया, परंतु पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार मुझे एक मिनी बस प्रकार की मोबाइल
वैन आवंटित की गई थी, न कि बिना सायरन वाली
जीप और न ही लाल बत्ती वाली। पिंजारा ने दावा किया कि वह बीमार होने के कारण नहीं
भागा, लेकिन उसके
परिवार के सदस्य भाग गए थे। लेकिन जब मैंने उसकी मदद करने से इनकार कर दिया तो वह मंदिर
में तिलक किया और खुद को हिंदू का वेश बनाकर देवगढ़ बरिया भाग गया। तो एक बार वह
कहता है कि वह बीमारी के कारण नहीं भागा और दूसरी बार वह कहता है कि वह भागकर
रणधीकपुर देवगढ़ बरिया चला गया। लेकिन सीबीआई ने मुझे उन सबूतों के साथ आरोपी बना
दिया जो उनके लिए उपयुक्त थे। इसी तरह बिलकिश ने गोधरा थाने में जीरो नंबर से
शिकायत दर्ज कराई थी। जिसमें पीएसआई शिवाजी पवार के समक्ष रेप करने वाले तीन
आरोपियों की डिटेल दी थी। पवार ने किसी भी आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया, तो भी सीबीआई ने
पवार से पूछताछ करने या उन्हें आरोपी बनाने की जहमत नहीं उठाई। उसके बाद सीआईडी
क्राइम ने जांच की। सीआईडी ने कोई आरोपी नहीं पकड़ा लेकिन एक भी सीआईडी अधिकारी के
खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
सीबीआई में दर्ज
शिकायत में बिलकिश ने दावा किया कि 25-30 आरोपी दो सफेद जीपों में आए थे। अगर सीबीआई ने 12 आरोपियों को
गिरफ्तार किया तो बाकी कौन थे आरोपी? उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश क्यों नहीं की। दो सफेद जीप थीं, अगर सीबीआई ने एक
सफेद जीप को जब्त कर लिया तो दूसरी कहां गई। मैं यह दावा नहीं करता कि बिलकिश के साथ बलात्कार
नहीं हुआ था, क्योंकि एक पुलिस
अधिकारी के रूप में मुझे जो सच्चाई समझ में आई वह अलग ही थी। बिलकिश ने दावा किया
कि वो कुल 17 आदमियों के साथ
भाग रही थी। जिसमें से भीड़ ने उसे और सद्दाम सहित एक बच्चे को जिंदा छोड़ दिया। लेकिन मेरी
जानकारी में वास्तव में 17 लोग एक साथ भागे
नहीं थे। बिलकिश को उस क्षेत्र के आदिवासी पहचानते थे। जब बिलकिश अपनी जान बचाने
के लिए जा रही थी तब स्थानीय लोगों ने उसे और उसके बच्चों को आश्रय दिया, जिसमें सद्दाम भी
शामिल था। लेकिन शाम को
इलाके के शराबियों ने बिलकिश की अनुमति के बिना उसका यौन उत्पीड़न किया। अगले दिन
स्थानीय लोगों ने सद्दाम समेत एक और बच्चे को आउट पोस्ट जमादार नरपत को सौंप दिया। जमादार ने बच्चों
को राहत शिविर में भेज दिया।
अब सवाल यह है कि
सीबीआई में दिए गए बयान के मुताबिक भीड़ ने बिलकिश की बेटी सालेहा की भी हत्या कर
दी थी, तो फिर उसने सद्दाम और उसके साथ के बच्चे को जीवित क्यों रहने दिया। सद्दाम अब बड़ा
हो गया था जब सीबीआई जांच में शामिल हुई थी। लेकिन सीबीआई सद्दाम से मिलने भी नहीं
गई, डॉक्टर दंपत्ति
पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने न केवल पीएम किया और न ही शवों को वडोदरा भेजने की
व्यवस्था की, बल्कि स्थिति के
अनुसार तब कोई पुलिस बल नहीं था और न ही थी शवों को 100 किमी के दायरे
में रखने की कोई व्यवस्था। सीबीआई ने इस पर ध्यान नहीं दिया। डॉक्टरों के साथ-साथ
चतुर्थ श्रेणी का एक कर्मचारी कालु आया था। उसने डॉक्टर के निर्देशानुसार
क्षत-विक्षत शरीर को पोस्टमोर्टम के लिए विच्छेदित कर किया और बाद में टांके भी लगा
दिये, लेकिन सीबीआई ने कालु का बयान नहीं लिया क्योंकि अगर उसका का बयान लिया जाता
तो यह साबित हो जाता कि पोस्टमॉर्टम हुआ था। अब मेरे पास जेल में बैठकर अखबार
पढ़ने और सोचने के अलावा कुछ कर नहीं सकता था।
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10
इस तरह चार साल
जेल में बीत गए। हमारे खिलाफ
मुंबई की एक विशेष अदालत में मुकदमा चल रहा था। 2008 में न्यायाधीश साल्वी
ने फैसला सुनाया जिसमें उन्होंने मेरे सहित पांच पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई
द्वारा लगाए गए आरोपों को मानने से इनकार कर दिया, और हमें निर्दोष करार दे कर छोड़ दिया गया।
जबकि हेड कांस्टेबल सोमभाई को तीन साल की सजा सुनाई गई थी। हालांकि उन्होंने श्रम
कैदी के रूप में चार साल जेल में बिताए थे जिसके कारण उन्हें रिहा भी कर दिया गया। लेकिन
वह जेल में बिताए दिनों को सहन नहीं कर सके और जेल से छूटने के तुरंत बाद उसकी
मृत्यु हो गई। मुझे खेद है कि विशेष अदालत ने हमें बरी कर दिया लेकिन बिलकिश
द्वारा आरोपित सभी लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। जिसमें नरेश मोडिआ की
जेल में मृत्यु हो गई। बाकी 11 आरोपियों का इस मामले से कोई लेना-देना नहीं था फिर भी
उन्हें अपनी पूरी जिंदगी जेल में गुजारनी पड़ रही है। और बिलकिश समेत अन्य महिलाओं
के साथ इस तरह के अपराध करने वाले आज खुले में घूम रहे हैं।
गुजरात पुलिस के
कुल छह पुलिस अधिकारी को सीबीआई ने गिरफ्तार किया था। जिसमें से हम पांच निर्दोष साबित
हुए और छुटकारा मिल गया। जिसके कारण सीबीआई ने तुरंत बॉम्बे हाईकोर्ट में विशेष
अदालत के आदेश के खिलाफ अपील की, लेकिन हमारे वकील हमें बॉम्बे हाईकोर्ट में दोषी साबित नहीं
कर सके और उच्च न्यायालय ने हमें दोषी माना। लेकिन हमने चार साल जेल में बिताए थे
उसे सजा गिनकर हमे छोड दिया गया।
मुझे पुलिस सब इंस्पेक्टर से पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में पदोन्नत किया गया। मुझे जानने वाले भले ही पूरी घटना भूल गए हों लेकिन मेरा मन मुझे भूलने नहीं देता। हम सड़क पर चिल्ला नहीं सकते कि हम दुखी हैं। मेरी संवेदना मरने वालों के साथ है। बिलकिश के साथ बदसलूकी करने वालों को भी सजा मिलनी चाहिए। लेकिन हमें बिना वजह प्रताड़ित किया गया। मामले की जांच कर रहे सीबीआई टीम मे डीआईजी, एसपी, डीवाईएसपी और इंस्पेक्टर समेत 32 अफसर थे। उनके पास पन्द्रह गाड़ियाँ थीं, लेकिन जहाँ घटना हुई वहाँ हम तीन आदमियों ने केवल एक पुरानी वैन की मदद से 400 लोगों को बचाया था। हो सकता है कि हमसे कुछ गलतियाँ हुई हों, लेकिन हमारी मंशा गलत नहीं थी। हमने हिंदू-मुस्लिम भेद के बिना पुलिस के रूप में काम किया है। हमें किसी भी राजनीतिक लाभ या हानि की परवाह नहीं है। 2015 में मैं एक पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में सेवानिवृत्त हुआ और वर्तमान में जूनागढ़ में अपने परिवार के साथ रहता हूं। हमने यह साबित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है कि हम निर्दोष हैं। मुझे नहीं पता कि मैं सुप्रीम कोर्ट में हमारा केस चलने तक जीवित रहूंगा या नहीं। हमेशा आरोपी के मानवाधिकारों की बात होती है। मैं एक पुलिस अधिकारी था, मुझे लगता है कि मानवाधिकार आयोग को हम जैसे पुलिस अधिकारियों के मानवाधिकारों के बारे में भी सोचना चाहिए। मुझे नहीं पता कि आप मेरी और मेरे साथियों की कैसे मदद कर सकते हैं। मैं आपको जो पत्र लिख रहा हूं, उसे मरने से पहले का बयान समझिए। इसका मतलब यह भी नहीं है कि मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। मैं कायर नहीं हूं मैं अपने सिर पर लगे काले धब्बे से छुटकारा पाने के लिए लड़ रहा हूं। मैं कलंक के साथ नहीं रह सकता और मैं कलंक के साथ मरना नहीं चाहता। मैं इस पत्र को मरने से पहले का बयान कह रहा हूं क्योंकि यह कानून है कि मरने वाला झूठ नहीं बोलता और मुझे नहीं पता कि मैं लंबे समय तक जीवित रहूंगा या नहीं। लेकिन लोगों के सामने अपनी ईमानदारी साबित करने का मेरा प्रयास है। - इदरिश सैयद, निवृत्त पुलिस इंस्पेक्टर, जूनागढ.